मैं जब गृहस्थ आश्रम में था, वर्ष में एक या दो माह के लिए किसी एकांत स्थान में चला जाता था,अपने-आप को प्रभु के चरणों में अर्पण कर देने के लिए। अपने साथ आटा कुछ दाल और घी, छोटा सा बिस्तर, थोड़े से कपड़े लेकर किसी जंगल में जाकर पत्तों की कुटिया बनाता था। उसमें रहने लगता था। दिन में एक बार दो रोटियां बना कर खा लेता था। शेष समय अपने मन में प्रभु के दर्शनों का प्रयत्न करता था।
एक बार घर से तैयारी करके जिला कांगड़ा के जंगल में जा पहुंचा। हवन किया इसके पश्चात मौन धारण करके अपने कार्य में रत हो गया। मन के रोगों को देखने लगा, इन्हें दूर करने का यत्न करने लगा। परंतु एक दिन ,दो दिन , तीन दिन बीत गए। चित्त को शांति नहीं मिली।
मैंने दुखी होकर भगवान से कहा— प्रभु !यह क्या बात है,तेरे द्वार पर आकर भी मेरे चित्र में शांति क्यों नहीं ?
मैं दुखी बैठा रहा प्रातः 5:00 बजे स्नान करके फिर से भजन करने बैठा तो विचित्र बात हुई ऐसा विदित हुआ जैसे भीतर से एक ध्वनि पुकार रही है फर्स्ट सीधे शब्दों में उसने का व्यर्थ है तेरा भजन व्यर्थ है तेरा आत्मचिंतन लाहौर में एक पुरुष है उससे तो घृणा करता है। जब तक यह गिरे ना तेरे ह्रदय में रहेगी तब तक मन को शांति नहीं मिलेगी। भजन में भी जी नहीं लगे लगाना चाहता है तो जा उससे पहले क्षमा मांग रैना को त्याग दे जो तेरे मन में है।
मैंने इस ध्वनि को सुना तो अशांति के कारण जैसे सजीव होकर मेरे सामने खड़ा हो गया उसी समय मैंने अपना बिस्तर बेटा घर में वापस आया तो घर वाले भी इसमें मैसेज किए इतनी शीघ्र घर कैसे आ गया परंतु मैंने यह बात किसी को नहीं बताई सामान रखा और सीधे उस साजन के घर गया उनके मकान पर जाकर पुकारा वह पुकार सुनकर बाहर आए.
मुझे देख कर वो आश्चर्य से बोले आप मैंने पगड़ी उतारी और उनके चरणों में रख दे बोला मैं क्षमा मांगने आया हूं मुझे क्षमा करना होगा उनमें राम वह आश्चर्य करने लगे क्या हो गया है मैंने कहा मैं जंगल में अज्ञातवास के लिए गया था वहीं से अंतरात्मा की अंतर ध्वनि हुई आत्मचिंतन छोड़कर सीधा यहां आ गया क्षमा नहीं करेंगे तो मेरे चित्र को शांति नहीं मिलेगी।
यह सुनते ही उसकी आंखों में आंसू आ गए अपने सीने से लगा लिया उन्होंने मुझको। वो भी रोए और मैं भी रोया परंतु इस रोने से घृणा की अग्नि शांत हो गई।
फिर मैं वापस जंगल गया वहां भजन में बैठा तो इस हृदय में अपार आनंद हुआ फिर चित्र नहीं लगे ऐसी बात नहीं हुई। कई लोग मेरे पास आते हैं कहते हैं हमारा भोजन करने को जीता नहीं चाहता अरे भोले बच्चों जी लगे किस प्रकार तुमने तो उसमें ही इसमें घृणा दीक्षा की अग्नि बेकार की है बुझा दो इसे अवश्य लगे लग जाएगा।
करूं मैं दुश्मनी किससे, अगर दुश्मन भी हो अपना ।
मोहब्बत ने नहीं दिल में ,जगह छोड़ी अदावत की।।
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