शरीर को ठीक रखने की क्या विधि है, इसके लिए आपको एक कहानी सुनाता हूं। समझाने के लिए शायद यह कहानी बनाई गई है ।कहानी यह है कि महर्षि चरक जब आयुर्वेद के सारे ग्रंथ लिख चुके, और सब प्रकार की विधियों का वर्णन,सर्व प्रकार की औषधियों का चिकित्साओं का वर्णन कर चुके और उनका प्रचार भी कर चुके तो उनके मन में विचार आया कि चलूं देखो लोग मेरे बताए हुए मार्ग पर चलते भी हैं या नहीं? मेरा परिश्रम सफल हुआ है या नहीं ?
एक पक्षी के रूप धारण करके वे उड़े और वहां गए, जहां वैद्यों का बाजार था । एक वृक्ष पर बैठकर पक्षी ने ऊंची आवाज में कहा — ” कोररुक ?” अर्थात रोगी कौन नहीं ?” एक वैद्य ने पक्षी को देखा , इसकी बात को समझा बोला — “जो चवनप्राश खाता है।”
एक और वैध बोला — “नहीं जो चंद्रप्रभा वटी खाता है!” तीसरा वैद्य बोला—” जो बंग भस्म खाए वह अरोगी है , वही अधिक स्वस्थ हैं ।
चौथे वैध साहब बोले — ” यह सब बातें गलत है। जब तक लवण भास्कर चूर्ण नहीं खाओगे , तब तक पेट ठीक नहीं होगा।”
चरक ने यह सब सुना तो दुख हुआ उन्हें। आश्चर्य के साथ उन्होंने सोचा — ‘ मैंने इतना बड़ा शास्त्र रचा तो क्या मनुष्य पेट को दवाइयों का गोदाम बना दिया जाए ? मेरा परिश्रम निष्फल हो गया। कोई भी कुछ सीखा नहीं ! “इससे दुखी होकर वे उड़े । कई स्थानों पर गए, हर स्थान पर उन्होंने कहा—” कोररुक ?”कहीं भी ठीक उत्तर ना मिला।
अंत में दुखी होकर एक उजाड सुनसान स्थान पर जाकर बैठ गए, एक सूखे वृक्ष की शाखा पर। इसके पास ही एक नदी बहती थी। नदी में नहा कर प्रसिद्ध वैद्य श्री वाग्भट्ट महाराज बाहर आ रहे थे। चरक ने उन्हें पहचाना ; पुकारकर कहा — ” कोररुक?”
वाग्भट्ट चलते चलते रुक गए। आंखें उठाकर पक्षी की ओर देखा ; बोले — ” हितभुक मितभुक ऋतभुक !”
चरस इन शब्दों को सुनते ही वृक्ष से नीचे आ गया। पक्षी रूप छोड़कर वाग्भट के समक्ष खड़े हो गए — तुम ठीक समझे हो वैधराज । “
परंतु इस हितभुक मितभुक ऋतभुक का अर्थ क्या है? मैं समझाता हूं। ऐसी वस्तु में खाओ जो आपके शरीर के लिए अच्छी हैं। केवल आने के लिए मत जियो ,जीने के लिए खाओ। जीभ के स्वाद में फंसकर पेट में कूड़ा करकट ना भरते जाओ। यह सोचकर खाओ कि जो खाते हो , उससे लाभ क्या होगा।