स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टकारा गाँव में 12 फरवरी 1824 (फाल्गुन बदि दशमी संवत् 1881) को हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण आपका नाम मूलशंकर रखा गया।
नन्हे मूलशंकर अर्थात दयानंद सरस्वती के पिता का नाम अम्बाशंकर था। आप बड़े मेधावी और होनहार थे। मूलशंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। दो वर्ष की आयु में ही आपने गायत्री मंत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीख लिया था। घर में पूजा-पाठ और शिव-भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान् शिव के प्रति बचपन से ही आपके मन में गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। अत: बाल्यकाल से ही मूलशंकर भगवान भोले शंकर के भक्त थे।
कुछ बड़े होने पर पिता ने घर पर ही शिक्षा देनी शुरू कर दी। मूलशंकर को धर्मशास्त्र की शिक्षा दी गयी। उसके बाद मूलशंकर की इच्छा संस्कृत पढने की हुई। चौदह वर्ष की आयु तक मूलशंकर ने सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, `सामवेद’ और ‘यजुर्वेद’ का अध्ययन कर लिया था। ब्रह्मचर्यकाल में ही आप भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े।
मथुरा के स्वामी विरजानंद इनके गुरू थे। शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराई।
चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति इनके मन में विद्रोह हुआ और इक्कीस वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया। स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया।
वर्ष 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।