तुम मुझे मिलती रहीं हमेशा
किसी और की अमृता बनकर
और , मैं सुनता रहा तुमसे
तुम्हारे साहिर के किस्से
तुम्हारी नज़्मों में
अक्सर मैंने देखी है
तुम्हारे साहिर की रूह की ख़ुशबू
और , तुम्हारे काजल ने
हमेशा चुगली की है
तुम्हारे साहिर के उस ग़म की
जो झिलमिला जाता है
गुलाब की पंखुड़ियों पे
शबनम की तरह
जिससे धुल जाता है तुम्हारा काजल
उस ग़म की बारिश में
मेरे पास तो इतने रंग भी नहीं
कि इमरोज़ की तरह
भर दूँ सारे रंग ख़ुशियों के
तुम्हारी ज़िंदगी के कैनवस में
एक हलफ़नामा लिखता हूँ रोज़
तुम्हारे नाम अपनी नज़्म में
मेरे इश्क़ के पैग़ाम का
और , लगाकर रसीदी टिकट
अपनी दुआओं की जमा कर देता हूँ
तुम्हारी नज़रे इनायत के दफ़्तर में
तुम भी जमा कर लेती हो
मेरे इश्किया हलफ़नामे
किसी मुहाफ़िज़ की तरह
ख़ुदा जाने किस लिए ?
किसके लिए ?
तुम तो नहीं बन सकोगी
मेरी अमृता कभी
मैं ही बना रहूँगा तुम्हारा
अनचाहा इमरोज़
लिखता हुआ नज़्में
तुम्हारे लिए
सुनते हुए तुमसे ….
तुम्हारे साहिर के किस्से
काश ..कि मैं ही
तुम्हारा साहिर होता तो
मैं अपनी अमृता को
इमरोज़ की तरह तो प्यार करता ही
और तुम भी जाँ निसार करती
मुझ पर तुम्हारे साहिर की तरह !!
(शैलेश)