दर्द को जीते हुए
सारी ज़िन्दगी
जी लेती है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
अफ़सोस इसका नहीं
कि दर्द मिला है
अफ़सोस ये है कि
उन्हें खबर भी नहीं
जिनके लिए
तूने दर्द लिया है
या कहूं
उन्हें तो फिकर ही नहीं
फिकर भी तो
दर्द की तरह
तेरे हिस्से में आयी है
वसुंधरा है तू
सब सहती आयी है
और उफ़ करना भी
नहीं जानती है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
ऐसा नहीं
कि कभी आह भी
न निकली हो तेरे मन से
लेकिन शायद ही कभी
व्यथा तेरे अंतरतम की
किसी ने सचमुच सुनी
पूछूंगा नहीं मैं
क्या बताएगी तू
किस ने सताया है तुझे
घर ने, समाज ने
या इतिहास ने ?
या कहूं
सताया किसने नहीं
इस पर भी अब तक
सदियों से सदियों तक
आंसू पीती रहेगी
और यूँ ही
जीती रहेगी तू
क्यूंकि
औरत है तू !
ऐसा नहीं कि
मुस्कुराना तुझे नहीं आता
तेरी मुस्कान पर
तो कवितायें लिखी जाती हैं
पर किसको पता है
कि कितनी पीड़ा है
इस सदानीरा की
मुस्कराहट में
जनम भर की वेदना
है तेरे जन्म की वेदना
जो तेरे आने पर
घरवालों को हुई
क्यूँ आँगन में
बजती हुई
शहनाई रोई
उम्र भर को टीस
उपहार सी मिली
तेरे वजूद ने
तो चाहा के यही हो
तू बांटती रहे
खुशियाँ सभी को
पर तेरे हिस्से में
सिर्फ ख़याल आया
हकीकत ने तो
हमेशा रुलाया
अपने होने से बेखबर
होके जीती है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
ज़िंदा है न
इसलिए
दोस्ती करती रही
ख़्वाबों से
और जूझती रही
हकीकत से तू
खुश होती रही
कि सबकी है तू
पर शायद तेरे लिए
कोई बनाया नहीं गया
तूने तो घर भी बनाया
उनकी दुनिया को भी बसाया
पर अपने लिए
कुछ मांगना
तू भूल ही गयी
पहली किलकारी से
आखिरी हिचकी तक
झूले से लेकर कन्धों तक
बाहों में भी कराहों में भी
अकेली ही रही तू
क्यूंकि
औरत है तू !
आरोपों और तानों को
सीने में छुपा कर
उभरती चीख को
अपने पल्लू में दबाकर
कांपते हांथों से
बच्चे पाले हैं तूने
चूल्हे और चौके में
बीत गए
जाने कितने बरस
देखा जब भी दरपन
खुद को पहचाना नहीं
क्या बताएगी तू
अपने अक्स को
उसकी उम्मीदें तो
तेरी सूनी आँखों में
हीं खो गयीं हैं
बेमानी इंतज़ार की घड़ियाँ
भी शायद सो गयीं हैं
तू अपने चेहरे से
प्यार कैसे करे
अपने ऊपर गुमान
कैसे करे
क्या कह कर
बहलाएगी खुद को
कैसे समझाएगी खुद को
ये सच है फिर भी
अपने सच से
हैरान नहीं है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
तू माँ भी है
बहन भी बेटी भी
प्रेयसी भी प्रियतमा भी
और पत्नी भी है तू
सबके लिए है
सबकी है तू
चलती है सबके साथ
पर चल नहीं पाती
अपने साथ
जी नहीं पाती
अपने लिए
फिर भी सब
भूल जाती है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
शिकायत नहीं
अपने नसीब से
पर दुःख तो है
तुझे अपने होने का
सालता है ये ख़याल
कोई काश होता
जो एहसास दिला पाता
तुझे तेरे रुपहले अस्तित्व का
और तब अच्छा लगता
अपना जीना तुझे
चाहे जीती रहे ताउम्र
तू औरों के लिए
अक्सर ऐसा भी
सोचती है तू
क्यूंकि
औरत है तू !
मधुकामिनी सी
कांटो में रहती है तू
गंगा सी
मरुस्थल में
बहती है तू
इंसानियत की
गुमनाम शोहरत है तू
सलाम तुझे
क्यूंकि
औरत है तू !